Prayas News MP, इंदौर: इंजेक्शन लगाने के तुरंत बाद काट दे सुई, हो सकती है घातक बीमारी - विशेषज्ञ


 


प्रयास न्यूज़, इंदौर : क्षेत्रीय कार्यालय, म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, इन्दौर द्वारा आज ब्रिलियंट कन्वेंशन सेंटर इन्दौर में ‘‘ जीव चिकित्सा अपशिष्ट, इलेक्ट्रानिक वेस्ट एवं परिसंकटमय अपशिष्ठ प्रबंधन’’ विषय पर एक प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया।


कार्यशाला में इन्दौर संभाग के अंतर्गत आने वाले जिलों के शासकीय अस्पताल, निजी नर्सिंग होम, पशु चिकित्सालय, पैथोलाॅजी, ब्लड बैंक में कार्यरत डाॅक्टर्स एवं पैरामेडिकल स्टाफ एवं ई-वेस्ट तथा परिसंकटमय अपशिष्ठ उत्पन्न करने वाली संस्थाओं के प्रतिनिधि जिनमें अस्पतालों सहित, आई.टी. कंपनी, काॅलेज, शासकीय कार्यालय, टेलीकाम कंपनीज के लगभग 300 प्रतिभागियों द्वारा भाग लिया गया।
 बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी आर.के. गुप्ता द्वारा स्वागत भाषण एवं विषय प्रवेश करते हुए बताया कि आज का विषय पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। हमारे देश में लगभग 02 लाख हेल्थकेयर संस्थान है तथा इनसे लगभग 490 टन प्रतिदिन जैव अपशिष्ट उत्पन्न होता है जिसमें से लगभग 450 टन प्रतिदिन का उपचार हो रहा है। अस्पतालों के कचरे का लगभग 85 प्रतिशत भाग नाॅन हजार्डस होता है तथा केवल 15 प्रतिशत भाग ही इन्फेक्सियस होता है परन्तु यह 15 प्रतिशत 85 प्रतिशत को खराब कर देता है यदि अपशिष्ठो का प्रबंधन उपयुक्त रूप से नही किया गया हो। इसीलिये अस्पतालों में अपशिष्ठो का पृथकीकरण एवं रंग अनुसार संग्रहण अत्यावश्यक है। इसी प्रकार वर्तमान परिवेश में ई-वेस्ट भी विनाशकारी अपशिष्ट के रूप में हमारे सामने एक पर्यावरणीय समस्या बनता जा रहा है। हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग 17 लाख टन ई-वेस्ट उत्पन्न होता है तथा यह 05 प्रतिशत की दर से हर वर्ष बढ़ रहा है। ई-वेस्ट में महंगी धातुओं जैसे गोल्ड, निकिल, जिंक, काॅपर, क्रोमियम इत्यादि  का इस्तेमाल होता है तथा अवैज्ञानिक तरीके से इनकी रिकवरी लोग करते है।  ई-वेस्ट को अवैज्ञानिक तरीके से खुले में जलाने से विषैली गैस उत्पन्न होती है जो मानव शरीर में प्रजनन क्षमता, शारीरिक विकास, हार्मोन असंतुलन तथा कैंसर जैसी समस्याऐं उत्पन्न करता है। हमारे देश में लगभग 100 करोड़ से अधिक मोबाईल का इस्तेमाल होता है तथा हर वर्ष लगभग 25 प्रतिशत मोबाईल ई-वेस्ट के रूप में उत्पन्न होने का आंकलन है। ई-वेस्ट प्रमुख रूप से 70 प्रतिशत कम्प्यूटर, 12 प्रतिशत टेलीकाॅम सेक्टर, 08 प्रतिशत मेडिकल इक्यूपमेंटस, 07 प्रतिशत इलेक्ट्रिकल इक्यूपमेंटस के रूप में उत्पन्न होता है। वर्तमान में केवल 25 प्रतिशत ई-वेस्ट का प्रबंधन ही वैज्ञानिक तरीके से हो रहा है। आज की कार्यशाला संयुक्त रूप से जीव चिकित्सा अपशिष्ठ प्रबंधन एवं ई-वेस्ट प्रबंधन विषर पर इसीलिये रखी गई है कि अस्पतालों, नर्सिंग होम, डायग्नोस्टिक सेंटर, पैथोलाॅजी इत्यादि ऐसी संस्थाऐं है जिनसे ई-वेस्ट उत्पन्न होता है तथा यह नियम सभी चिकित्सीय संस्थानों में लागू होते है।   
उल्लेखनिय है कि माननीय राष्ट्रीय हरित अधिकरण नई दिल्ली द्वारा उपरोक्तानुसार अपशिष्ठों के उपयुक्त संग्रहण, उपचार एवं निपटान के संबंध में बनाये गये नियमों के कड़ाई से पालन के निर्देश दिये गये हैं तथा यह भी निर्देशित किया गया है कि जो भी संस्थाएं नियमों का पालन नहीं करती हैं उनके विरूद्ध पर्यावरण क्षति राशि की वसूली की जावे। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा आदेशानुसार दोषी संस्थाओं से पर्यावरण क्षति राशि का फाॅर्मूला तय कर दिया गया है तथा यह राशि न्यूनतम रूपये-1200/दिन रखी गई है, जो अपालन की स्थिति में रूपये-5000/दिन भी हो सकती है। प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन उपरोक्तानुसार सभी संस्थाओं को पर्यावरणीय नियमों से अवगत कराने के उद्देश्य से किया गया। नियमों के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी प्रकार का जीव चिकित्सा अपशिष्ट नगरीय ठोस अपशिष्टो के साथ मिक्स नही किया जावेगा। इन नियमों में बायो मेडिकल वेस्ट की बारकोडिंग का प्रावधान लागू किया गया है। नियमों में जीव चिकित्सा अपशिष्ट को चार श्रैणियांे क्रमशः पीला, नीला, लाल एवं सफेद में विभाजित किया गया है। पूर्व में यह 10 श्रैणियों में विभाजित था जो काफी जटिल था। सभी अस्पतालों को अपनी वेबसाइट 02 वर्ष में बनाकर उनके संस्थान से उत्पन्न अपशिष्ठो का वार्षिक प्रतिवेदन अपलोड़ किया जाना है। 
कार्यक्रम में उपस्थित मुख्य अतिथि डाॅ. बी.एस. ठाकुर, सुप्रीटेंडेंट, महाराजा यशवंतराव अस्पताल इन्दौर द्वारा जैव अपशिष्ठों के पृथकीकरण, उपचार एवं निपटान की आवश्यकता बताई गई एवं आश्वासन दिया कि वे प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल एम.वाय. हाॅस्पिटल में अनिवार्य रूप से लागू करें। उन्होनें कहा कि वेस्ट प्रबंधन  बड़े अस्पतालों तक सीमित न रहे बल्कि इसे छोटे क्लीनिको, अस्पतालों के स्तर पर भी कडाई से लागू किये जाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि सभी डाॅक्टर्स, पैरामेडीकल स्टाफ यदि जीव चिकित्सा अपशिष्ठ प्रबंधन को ड्यूटी मान लेंगे तो इसके उपचार एवं प्रबंधन आसानी से हो सकेगा। हमें ध्यान रखना होगा कि अस्पताल रोगियों के उपचार के केन्द्र बनें न कि इससे उत्पन्न होने वाले जैव अपशिष्ठ से बीमारियां फैलें। कार्यक्रम की अध्यक्षता इण्डियन मेडिकल एशोसिएशन के प्रेसीडेंट डाॅ. डी. शेखर राव द्वारा की गई।  
कार्यशाला में ई-वेस्ट प्रबंधन नियम 2016 की जानकारी डाॅ. फजल हुसैन इन्दौर द्वारा दी गई। उन्होने बताया कि ई-वेस्ट प्रबंधन नियम सभी अस्पतालों, आई.टी. सेक्टर, टेलीकाॅम सेक्टर, स्कूल-काॅलेज इत्यादि में लागू होते है। यह सभी संस्थाऐं बल्क कंज्यूमर की श्रैणी में आती है। सभी बल्क कंज्यूमर की यह जिम्मेदारी है कि वे फार्म-2 में ई-वेस्ट की जानकारी रखें तथा फार्म-3 मंे हरवर्ष की 30 जून के पूर्व जानकारी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को प्रस्तुत करें।


हर संस्था को यह भी सुनिश्चित करना है कि 180 दिन की अवधि के भीतर ई-वेस्ट का निपटान करना अनिवार्य है तथा यह केवल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पंजीकृत रिसाईकलर के माध्यम से ही करना आवश्यक है ताकि अनआर्गेनाइज्ड़ सेक्टर द्वारा खुले में ई-वेस्ट जलाने जैसी घटना से बचा जा सके। उन्होने बताया कि ई-वेस्ट का उपयुक्त प्रबंधन नही होने से जल, वायु तथा मृदा प्रदूषण की स्थिति निर्मित होती है। ई-वेस्ट में पाये जाने वाले हेवी मेटल्स जैसे- लैड, कैडमियम, क्रोमियम, मरकरी इत्यादि से कैंसर जैसी गंभीर बिमारियों का खतरा उत्पन्न होता है।  
अनूप चतुर्वेदी, वैज्ञानिक, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, भोपाल द्वारा जीव चिकित्सा अपशिष्ठ प्रबंधन नियम 2016 के बारे में विस्तृत जानकारी द्वारा प्रस्तुत की गई। उन्होने बताया कि वेक्सीनेशन कैम्प, ब्लड़ डोनेशन कैम्प, सर्जिकल कैम्प तथा इसी प्रकार की अन्य गतिविधियां जो अस्पताल से बाहर रखी जावेगी उन्हे भी नियमो के दायरे मे लाया गया है।


नवीन नियमों मे जीव चिकित्सा अपशिष्ठ को वेंटिलेटेड़ एवं सुरक्षित स्थान पर संग्रहण का प्रावधान किया गया है तथा अपशिष्ठ की सेकेण्डरी हेण्डलिंग ना हो इसकी व्यवस्था का दायित्व अस्पतालो का रखा गया है। किसी भी हालत में जीव चिकित्सा अपशिष्ठ, नगरीय ठोस अपशिष्ठ के साथ संग्रहीत नही किया जावेगा ओर ना ही यह लेंडफिल साइड पहुॅचे यह कर्तव्य संबंधित चिकित्सा संस्थान का होगा। जीव चिकित्सा अपशिष्ठ नियम का पालन नही होने की दशा में दोषियों के विरूद्ध पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत दण्डात्मक कार्यवाही का प्रावधान है, जिसमें पाॅच वर्ष के कारावास सहित आर्थिक दण्ड का प्रावधान है। 
कार्यशाला मे डाॅ असद वारसी द्वारा इन्दौर में जीव चिकित्सा अपशिष्ठ के उपचार हेतु अपनाई जा रही तकनीक की विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की गई। उन्होने बताया कि, इन्दौर में लगभग 60 प्रतिशत चिकित्सकीय संस्थानों में बारकोड के माध्यम से अपशिष्ठ प्राप्त हो रहा है तथा इसे 100 प्रतिशत करने की आवश्यक्ता है। उन्होंने बताया कि अस्पताल स्तर पर जीव चिकित्सा अपशिष्ठ के सेग्रीगेशन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है अन्यथा अपशिष्ठों के इन्सिनिरेशन में समस्या आती है। उन्होने बताया कि इंजेक्शन लगाने के बाद सीरिंज की सुईयों को तत्काल ही कटर के माध्यम से काट देना चाहिये व इंजेक्शन की सुईयों को हाइपोक्लोराईड सोल्यूशन से विसंक्रमित कर देना चाहिये। इससे अस्पताल के अंदर कार्य करने वाले सभी कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे तथा जीव चिकित्सा प्रबंधन नियम का पालन हो सकेगा तथा सीरिंजों के रिसाइकिलिंग की जो शिकायतें आती है वे शून्य हो जावेंगीं। सीरिंज की रिसाइकिलिंग से विभिन्न प्रकार की बीमारियां जैसे-हेैपेटाइटिस बी, एड्स एवं अन्य प्रकार की गंभीर बीमारियां पैदा होने का खतरा होता है।ं 


कार्यक्रम का संचालन मुख्य रसायनज्ञ डाॅ. डी.के. वागेला द्वारा किया गया तथा धन्यवाद प्रस्ताव सुनील श्रीवास्तव, क्षेत्रीय अधिकारी, धार द्वारा दिया गया।


कार्यशाला में म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से मुख्य रसायनज्ञ एस.एन. पाटिल, वैज्ञानिक अजय मिश्रा, एस.एन. कटारे, क. वैज्ञानिक, अशोक रामावत, रसायनज्ञ सहित अन्य अधिकारी उपस्थित थें।


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